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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।

अथवा
हिन्दी समालोचना की परिभाषा देते हुए उसके विकास पर प्रकाश डालिए।
अथवा
हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास का निरूपण कीजिए।

उत्तर -

आलोचना शब्द लौच धातु से बना है। जिसका अर्थ है - देखना। इसलिए किसी वस्तु या कृति की सम्यक व्याख्या, उसका मूल्यांकन करना ही आलोचना है। कुछ व्यक्ति इस शब्द का अर्थ केवल गुण कथन या केवल दोषानुसंधान ही समझ बैठे हैं। इसीलिए आलोचना से पूर्व 'सम' उपसर्ग को जोड़कर समालोचना शब्द भी प्रचलित हो गया। जिसका अर्थ है -सन्तुलित दृष्टि से किसी रचना के गुण-दोषों का विवेचन। आलोचना के अर्थ में एक शब्द समीक्षा भी प्रचलित है। संस्कृत की व्युत्पत्ति के अनुसार समीक्षा का अर्थ है - "जिसमें रचना की अन्तर्व्याख्या और अवान्तरार्धो का विच्छेद किया गया है।' इस प्रकार आलोचना, समालोचना और अवान्तरार्धो का विच्छेद किया गया है। इस प्रकार आलोचना, समालोचना तथा समीक्षा में तीनों ही शब्द समानार्थी हैं और इनका अभिप्राय वस्तुओं के गुण-दोष परखने से है।

परिभाषा - पर्स फोल्ड आलोचना के स्वरूपं को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना है।' मैथ्यू आर्नल्ड के मतानुसार, "आलोचक को तटस्थ भाव से वस्तु के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अनुभव और प्रचार करना चाहिए। आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता है तटस्थता। वस्तु के स्वरूप की जिज्ञासा ही उसे आलोचना के मार्ग में प्रवृत्त करती है।' कार्लाइल के शब्दों में "आलोचना पुस्तक के प्रति अद्भुत आलोचक की मानसिक प्रतिक्रिया का परिणाम है।' इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का मत है कि, "आलोचना का अर्थ वस्तुओं के गुण-दोषों की परख करना है, चाहे वह परख साहित्य क्षेत्र में की गई हो या ललित कला के क्षेत्र में इसका स्वरूप निर्णय और समाविष्ट है।'

पाश्चात्य विद्वानों की भांति ही भारतीय विद्वानों ने भी आलोचना की परिभाषा प्रस्तुत की हैं। डॉ. श्यामसुन्दर दास का कथन है कि, "साहित्य क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है। यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।'

डॉ. गुलाब राय का अभिमत है - "आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी कोणों आस्वाद कर पाठकों को इस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उनके बीच रुचि को परमार्जित करना एवं साहित्य की गतिविधि निर्धारित करने में योग देना है।"

इस प्रकार स्पष्ट है कि आलोचना एक ओर सत्साहित्य के निर्माण को प्रोत्साहन देती है, तो दूसरी ओर अदासाहित्य के निर्माण में गत्यावरोध उपस्थित करती है। यह साहित्यकारों की निरंकुशता पर अंकुश लगाती है और साहित्य तथा पाठकों के सम्बन्ध को एक सामान्य भाव भूमि पर अवस्थित करती है। समालोचक कवि और पाठक के बीच में सेतु का कार्य करता है। अतः उसका दोनों के प्रति उत्तरदायित्व है। एक ओर वह कवि की कृति का सहृदय व्याख्याता और निर्णायक होता है तो दूसरी ओर वह अपने पाठक का विश्वासपात्र और प्रतिनिधि समझा जाता है। कवि की भांति वह दृष्टा और सृष्टा दोनों ही होता है, लोक-व्यवहार और शास्त्र का ज्ञान, प्रतिभा तथा अभ्यास आदि साधन जैसे कवि के लिए अपेक्षित हैं, उसी प्रकार समालोचक के लिए भी।

हिन्दी आलोचना का विकास - हिन्दी साहित्य में आलोचना के विकास को निम्नलिखित कालों के अन्तर्गत बांटा जाता है -

(1) भारतेन्दु युग (सन 1875 से 1903 तक) - भारतेन्दु युग के आरम्भ में हिन्दी काव्य रचना, पद्य रचना में सीमित थी। 17वीं और 18वीं शताब्दी में प्रचलित काव्यांगों को शास्त्रीय विवेचना का रूप भी शिथिल हो गया था।

भारेतन्दु युग में गद्य की विभिन्न विधाओं का सूत्रपात हुआ। इस समय के साहित्य-सेवियों का ध्यान और उनका प्रयत्न प्रधानता भाषा शैली के प्रति ही था। हाँ, इतना अवश्य है कि इन लोगों ने भाषा शैली के रूप विषयक जो लेख समय-समय पर प्रकाशित किये वे आलोचनात्मक शैली में ही हैं।

इस युग में विदेशियों के आगमन के फलस्वरूप रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा आदि के विषय में भी विवाद उठ खड़े हुए थे। इनको लेकर पत्र-पत्रिकाओं में उत्तर-प्रत्युत्तर प्रकाशित होते रहते थे। आधुनिक आलोचना का सूत्रपात यहीं से समझना चाहिए। आरम्भिक आलोचकों में भारतेन्दु, बद्रीनारायण चौधरी, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, श्रीनिवासदास तथा गंगा प्रसाद अग्निहोत्री के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी आलोचनाएँ प्रायः व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर रहा करती थीं। इस प्रकार भारतेन्दु युग में विषय प्रधानता की दृष्टि से समालोचक के तीन रूप थे। यथा -

(क) पूर्व प्रचलित काव्यालोचना
(ख) धर्म-समाज सम्बन्धी सामयिक आलोचना।
(ग) साहित्यिक आलोचना।

आलोचक शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाता है, उसका प्रारम्भिक रूप हमें भारतेन्दु युग के एक-दो ग्रन्थों की भूमिका में मिल जाता है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने इतिहास तिमिर नामक पुस्तक की भूमिका में भाषा रूप सम्बन्धी विचार साहित्यकारों के सम्मुख रहे। इनका उत्तर राजा लक्ष्मण सिंह ने 'रघुवंश' की भूमिका में दिया। तत्पश्चात् इस संबंध में विचार प्रकट करने की एक परम्परा सी चल पड़ी और इस प्रकार आलोचना-शैली में जन्म का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ।

साहित्यकार अपनी प्रकाशित पुस्तकों को सम्मत्यर्थ अपने मित्रों को भेंट किया करते थे। ये सम्पत्तियाँ पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। इस प्रकार लेखकों की भाषा शैली और विचारधारा की समालोचना का प्रारम्भ हुआ। श्री निवासदास कृत 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक की बद्रीनारायण चौधरी और बालकृष्ण भट्ट ने अपनी योग्यतानुसार निष्पक्ष आलोचना की जो 'आनन्द कादम्बिनी' पत्रिका में प्रकाशित हुई। इन आलोचनाओं ने पुस्तक के विषय में केवल प्रशंसनात्मक सम्मति न देकर उसकी कटु आलोचना की और इस प्रकार अपने अनुपम साहस का परिचय दिया। अतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य उक्त दो समालोचकों का ही माना जाना चाहिए। इसके बाद तो पत्र- पत्रिकाओं में पुस्तकों की समालोचना प्रकाशित होने का एक क्रम ही चल पड़ा।

सारांश यह है कि 'आनन्दकादम्बिनी' में प्रकाशित 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक की आलोचना के साथ हिन्दी की आधुनिक समालोचना की परम्परा प्रारम्भ होती है।

(2) द्विवेदी युग (सन् 1903 से 1920 तक) - आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने 1903 में 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादन स्वीकार किया था। वे उसके पहले ही हिन्दी के रीडरों की आलोचना करके आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। 'सरस्वती' का भार संभालने के पश्चात् उन्होंने लाला सीताराम के अनुवादित संस्कृत नाटकों में भाषा और भाव के दोष दिखाये। उन्होंने 'सरस्वती' में 'कालिदास' की निरंकुशता विक्रमांक देव चरित चर्चा, नैषध चरित चर्चा, 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता आदि आलोचनात्मक लेख प्रकाशित किये। ये लेख व्याख्यात्मक आलोचना के रूप में लिखे गये थे।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य द्विवेदी जी ने यह किया है कि पुस्तक की समीक्षा अर्थात् समालोचना के लिए उन्होंने 'सरस्वती' में एक पृथक स्तम्भ ही बोल दिया। इस स्तम्भ के अन्तर्गत उन्होंने नव-प्रकाशित पुस्तकों में भाषा शैली इत्यादि की निर्भय होकर समालोचना की। यह बड़े साहस का काम था और इसका विरोध भी खूब हुआ। द्विवेदी जी ने उक्त विरोध का डटकर सामना किया। अपने विरोधियों को खूब करारे उत्तर दिये। वे अपनी इस परीक्षा में पूरी तरह खरे उतरे। द्विवेदी जी की इस प्रकार की समालोचना का हिन्दी के विकास के ऊपर स्वस्थ प्रभाव पड़ा। भाषा की शुद्धि और शैली की व्यवस्था बनाने में इन समालोचकों का बड़ा ही महत्वपूर्ण हाथ रहा। पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तकों की सम्यक् समालोचना का सूत्रपात बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा। इस प्रकार समालोचना के समीचीन समारम्भ का श्रेय द्विवेदी जी को है। इसका समीचीन विकास भी द्विवेदी युग में ही हुआ। इनके समकालीन समालोचनों में मिश्रबन्धु पद्मसिंह और लाला भगवानदीन के नाम विशेष महत्वपूर्ण हैं।

इन लेखकों ने विशेषतः रीतिकाल के सम्बन्ध में विस्तृत समालोचनाएँ प्रस्तुत कीं। मिश्र बन्धुओं के दो ग्रन्थ 'हिन्दी नवरत्न' और 'मिश्र बन्धु विनोद' विशेष प्रसिद्ध हैं। 'हिन्द नवरत्न' में इन्होंने हिन्दी के सर्वमान्य नौ कवियों की रचना पर आलोचनात्मक ढंग से विचार किया। उनकी सम्मति में देव हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं - तुलसी और सूर से भी बढ़कर। इस प्रसंग को लेकर आलोचना के क्षेत्र में एक विवाद सा खड़ा हो गया। मिश्रबन्धुओं ने देव को सर्वश्रेष्ठ बताया। पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी का पक्ष ग्रहण किया। उन्होंने बिहारी की 'सतसई' पर संजीविनी - टीका लिखी और भूमिका के रूप में 'बिहारी सतसई' पर एक तुलनात्मक समालोचना लिखी। इसमें 'सतसई' की परम्परा का इतिहास देते हुए संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, फारसी तथा हिन्दी के कवियों के साथ बिहारी की तुलना की गई और बिहारी को सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इसके साथ हिन्दी में तुलनात्मक समीक्षा का सूत्रपात हुआ। इस पर मिश्र बन्धुओं ने देव की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते हुए पुनः 'बिहारी और रेव' नामक पुस्तककार आलोचना उपस्थित की। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण काम यह हुआ कि समालोचना को बल प्राप्त हुआ और लोगों को उसके महत्व का ज्ञान हुआ।

(3) शुक्ल युग (सन् 1920 से 1936 तक) - समालोचना के तृतीय विकास का युग पं0 रामचंद्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कार्य से होता है। उन्होंने सूर, तुलसी और जायसी पर विश्लेषणात्मक एवं अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण समालोचनाएँ लिखीं। शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तों का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपनी समालोचना में दोनों का ऐसा समन्वय किया कि वे एक-दूसरे के पूरक प्रतीक होने लगीं। उन जैसी समालोचनाएँ हिन्दी में ही क्या अन्य भारतीय भाषाओं में भी दुर्लभ हैं। कवियों के सम्बन्ध में ऐसी स्पष्ट विस्तृत और गम्भीर समालोचनाएँ बहुत कम दिखाई देती हैं।

शुक्ल जी ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक ग्रन्थ में हिन्दी के सभी साहित्यकारों की काव्य प्रवृत्तियों का परिचय देकर उनका स्थान निर्धारित किया है। परवर्ती हिन्दी इतिहास लेखकों के ऊपर शुक्ल जी के इतिहास की गहरी छाप पड़ी है।

शुक्ल जी की आलोचना पद्धति से प्रभावित होकर उनके शिष्यों तथा अन्य साहित्य प्रेमी आलोचकों ने विभिन्न कवियों पर आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखे। इस वर्ग के समालोचकों में नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, डॉ. नागेन्द्र, डॉ. सत्येन्द्र, कृष्णशंकर शुक्ल, रामकृष्ण शुक्ल, शान्तिप्रिय द्विवेदी, रामनाथ सुमन तथा गिरिजाशंकर शुक्ल 'गिरिश' के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समालोचना के क्षेत्र में दूसरे ढंग का कार्य डॉ. श्यामसुन्दर दास ने किया। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य काव्य-मीमांसा को लेकर अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्यालोचन' पर रचना की। इसमें सैद्धान्तिक समालोचना का सुन्दर रूप है। इसके अनुकरण पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। डॉ. गुलाबराय का सिद्धान्त और अध्ययन तथा रांमदहिन मिश्र का 'काव्य दर्पण' विशेष महत्वपूर्ण है।

उक्त दोनों ही विद्वान काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग आचार्य पद को सुशोभित करने वाले महानुभाव थे। इन दोनों ने हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में वस्तुतः युगान्तर ही उपस्थित कर दिया।

(5) वर्तमान युग सन् (1936 से अब तक) - शुक्ल जी द्वारा प्रतिष्ठित समालोचना पद्धति पर समालोचक बराबर व्याख्यात्मक समालोचनाएँ लिखते रहते हैं। इन लेखकों ने कवियों, नाटककारों, उपन्यासकारों, कहानीकारों तथा उनकी रचनाओं पर महत्वपूर्ण समालोचनाएँ लिखी हैं। उनमें प्रमुख हैं - डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ. रामरतन भटनागर, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. सत्येन्द्र, माता प्रसाद गुप्त, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा परशुराम चतुर्वेदी।

प्रगतिवादी विचारधारा ने समालोचना को भी प्रभावित किया है। इन प्रगतिवादी आलोचकों में उल्लेखनीय हैं - डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. शिवदान सिंह चौहान, प्रभाकर माचवे, प्रकाशचंद्र गुप्त, भगवत शरण उपाध्याय, इलाचन्द्र जोशी और डॉ. नागेन्द्र की समालोचनाओं पर प्रभाववादी विचारधारा का रंग दिखाई देता है।

आजकल हिन्दी के अधकचरे समालोचक बहुत उठ खड़े हुए हैं - इन्हें न तो भारतीय समीक्षाशास्त्र का ही सम्यक ज्ञान है और न पाश्चात्य सिद्धान्तों से ही पूर्ण परिचय है। ये समालोचक किसी तथ्य पर पहुंचते हुए न दिखाई देकर शब्दजाल में ही उलझे दिखाई देते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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